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कविता

हाथ जो उठते हैं

मार्गुस लतीक

अनुवाद - गौतम वसिष्ठ


हाथ जो उठते हैं एक
अधूरे धूसर को तराशने को

न हाथ मुकम्मल
न धूसर मुकम्मल!

वक्त की किताब में
हैं नक्शे भरे हुए,
उस पूरे जमाने का
जो ख्वाबीदा गुजर गया!

मगर हाँ...
तुम्हारी महफूज नींदों में
यूँ हर याद हो दफन,
जैसे जर्द चाँद में
हर बात है दफन!

फिर वो धारियों वाली
इक पुरानी सी थैली
काफी है ढोने को,
हर चीज जरूरत की...

वो नक्शे की किताब
कुछ बेर और
मुट्ठी भर रोशनी !!

 


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